https://www.youtube.com/watch?v=DjmOFM9q0uk
पेड़ से फल पकने के बाद स्वत : ही गिर जाता है डाल से अलग हो जाता है एक मनुष्य ही है जो पकी उम्र के बाद भी बच्चों के बच्चों से चिपका रहता है। इसे ही मोह कहते हैं। माया के कुनबे में लिपटा रहता है मनुष्य -मेरा बेटा मेरा पोता मेरे नाती आदि आदि से आबद्ध रहता है।
ऐसे में आध्यात्मिक विकास के लिए अवकाश ही कहाँ रहता है लिहाज़ा :
पुनरपि जन्मम पुनरपि मरणम ,
पुनरपि जननी जठरे शयनम।
अनेकों जन्म बीत गए ट्रेफिक ब्रेक हुआ ही नहीं।
Composed by the great saint Sri Adi Shankaracharya, Bhaja Govindam is one of the most lucid yet insightful works of Vedanta. There is a story attached to the composition of this Hymn. It is said that Adi Shankara was walking along a street in Varanasi one day, accompanied by his disciples. He heard an old scholar reciting his grammatical rules. Taking pity on him, he went up and advised him not to waste his time on grammar at his age but to turn his mind to God in worship and adoration. The Hymn to Govinda was composed on this occasion. Besides the refrain of the song beginning with the words "Bhaja Govindam", Shankara is said to have sung twelve verses, hence the hymn bears the title "Dvadasamanjarika-Stotra" (A hymn which is a bunch of twelve verse-blossoms). The fourteen disciples who were with the Master then are believed to have added one verse each. These fourteen verses are together called"Chaturdasa-manjarika-Stotra" (A hymn which is a bunch of fourteen verse-blossoms). Remembering Lord has a much deeper meaning than just ritualistic worship by chanting some mantras or following certain procedures of worship. Govindam basically stands for Atman....which is unchangable and constant. Truth behind the ever changing flux of things that we experience in this universe. Bhajanam means seeking your atma. Bhaj Govindam basically means seek your identity with Govindam, the Supreme One.
क्या इसीलिए ये मनुष्य तन का चोला पहना था। आखिर तुम्हारा निज स्वरूप क्या है। ये सब नाते नाती रिश्ते तुम्हारे देह के संबंधी हैं तुम्हारे निज स्वरूप से इनका कोई लेना देना नहीं है। शरीर नहीं शरीर के मालिक शरीरी हो तुम। पहचानों अपने निज सच्चिदानंद स्वरूप को।
अहम् ब्रह्मास्मि
कबीर माया के इसी कुनबे पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं :मनुष्य जब यह शरीर छोड़ देता है स्थूल तत्वों का संग्रह जब सूक्ष्म रूप पांच में तब्दील हो जाता है तब माँ जीवन भर संतान के लिए विलाप करती है उस संतान के लिए जो उसके जीते जी शरीर छोड़ जाए। बहना दस माह तक और स्त्री तेरह दिन तक। उसके बाद जीवन का वही ढर्रा बढ़ता है अपनी चाल।
मन फूला फूला फिरे जगत में झूठा नाता रे ,
जब तक जीवे माता रोवे ,बहन रोये दस मासा रे ,
तेरह दिन तक तिरिया रोवे फ़ेर करे घर वासा रे।
https://www.youtube.com/watch?v=7FZFvFWztOA
https://www.youtube.com/watch?v=_AHBSi2_Dpc&list=PL8AD58AE18FE2FC69
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