आस्थाएं हमारे अर्वाचीन मन पर लिखा पुरालेख हैं। मन कभी मरता नहीं है। काया तो वैसे भी मृत (जड़ )ही है जीव (आत्मा )जब उसमें प्रवेश करता है तब जीवात्मा का शरीर जो उपकरण मात्र है हरकत में आता है। भोक्ता जीवात्मा है शरीर भुक्त है।
आस्थाओं को तौलने वाला तराजू विज्ञान कभी नहीं बना पायेगा। अब गॉड पार्टिकिल है क्या यह भी मात्र आस्था नहीं है? 'है 'तो दिखाओ ? लाओ प्रयोगशाला में। समझाओ कैसे और कहाँ से जिसे हम पदार्थ कहते हैं उसमें द्रव्य (मात्रा पदार्थ की )आया ?
What gives material particles its mass ,the bloody God Particle which has become a Holy Grail of Physics ?
रणवीर सिंह जी एक सार्थक आलेख आपने लिखा है जो सोचने बूझने के लिए बहुत कुछ छोड़ जाता है।अध्यात्म अंत :करण की यात्रा है। विज्ञान बेहरूनी (बाहरी स्थूल जगत )की यात्रा है। सत्य का अन्वेषण दोनों अपने- अपने तरीके से करते रहें हैं। करते रहेंगे।
यह वैसे ही है जैसे सुख और दुःख ,जीवन और मृत्यु ,विज्ञान और अध्यात्म।
एक प्रति-क्रिया रणवीर सिंह जी की फेसबुक वाल पोस्ट :
आस्थाओं को तौलने वाला तराजू विज्ञान कभी नहीं बना पायेगा। अब गॉड पार्टिकिल है क्या यह भी मात्र आस्था नहीं है? 'है 'तो दिखाओ ? लाओ प्रयोगशाला में। समझाओ कैसे और कहाँ से जिसे हम पदार्थ कहते हैं उसमें द्रव्य (मात्रा पदार्थ की )आया ?
What gives material particles its mass ,the bloody God Particle which has become a Holy Grail of Physics ?
रणवीर सिंह जी एक सार्थक आलेख आपने लिखा है जो सोचने बूझने के लिए बहुत कुछ छोड़ जाता है।अध्यात्म अंत :करण की यात्रा है। विज्ञान बेहरूनी (बाहरी स्थूल जगत )की यात्रा है। सत्य का अन्वेषण दोनों अपने- अपने तरीके से करते रहें हैं। करते रहेंगे।
यह वैसे ही है जैसे सुख और दुःख ,जीवन और मृत्यु ,विज्ञान और अध्यात्म।
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लोक में विश्वास/आस्था, भारत की राजनीति
रोहतक के दक्षिण में जिला झज्जर में एक गांव है बेरी. यहाँ भीमेश्वरी देवी का मंदिर है. लोककथा है कि वनवास से लौटते समय महाबली भीम पाकिस्तान स्थित हिंगलाजगढ़ से देवी की मूर्ति अपने हाथों में थामकर लाये थे और वहीं किसी ने यह भी बताया था कि अगर मूर्ति को इन्द्रप्रस्थ से पहले कहीं भूमि पर रख दिया तो फिर उठायी नहीं जा सकेगी. लेकिन 'मोटी बुद्धि' के भीम भूल गए और बेरी में तालाब देखकर लघुशंका हुयी तो मूर्ति को भूमि पर रख दिया. फिर लाख बार जोर लगाने के बाद भी वे छोटी सी पत्थर की मूर्ति को उठा न पाए और वहीं पूजा-अर्चना करने के बाद स्थापित कर दी. कालान्तर में इस मूर्ति पर एक भवन बनाया गया. इस मूर्ति की बड़ी मान्यता रही और कादयान जाटों के १२ गाँवों (बाराह गाँवों का समूह) ने बाद में इसे कुलदेवी के रूप में अपना लिया. अन्य लोग में भी इसकी मान्यता है. बच्चे के पहले बाल यहीं उतरवाने की परंपरा भी पड़ गयी. बेरी से हिंगलाज का छोटा रास्ता भी १५०० किलोमीटर से कम लंबा नहीं है. ९०० किलोमीटर बाड़मेर में मुनाबाओ और इससे आगे ६०० किलोमीटर दूर बलूचिस्तान के सूखे पहाड़ों में हिंगलाज. भीम इतनी दूर अकेला क्यों जाएगा और १५०० किलोमीटर तक वह हाथ में ही १५-२० किलोग्राम भारी मूर्ति क्यों रखेगा. एक हिंगलाजगढ़ कोटा-उज्जैन के रास्ते में मध्य प्रदेश में भी है जो झज्जर से ६०० किलोमीटर दूर है. संभव है पांडव वनवास के दौरान उधर निकल गए हों. चलिए बेरी में मंदिर बनने की एक कथा प्रचलित हो गयी और लोगों को मेला लगाने की एक वजह भी मिली. २२ साल पहले जब मैं इस मंदिर को देखने आया था तो मालूम हुआ कि पुरना मंदिर गांव के अन्दर ही है. प्रातःकाल होने पर पुजारी मूर्ति को चौकी में बिठाकर, सर पर रखकर सरोवर के किनारे स्थित बाद में बने बाहर के मंदिर में ले जाकर विराजते हैं ताकि पब्लिक पूजा-पाठ कर सके. आजकल तो जल्दी-जल्दी ही लोगों को बाहर जाने के लिए दबाव बनाया जाता है ताकि सब लोग दर्शन कर सकें. शाम होने पर मूर्ति को पुनः भीतर के मंदिर में 'सुरक्षित' स्थान पर शिफ्ट कर दिया जाता है. पुजारी महोदय का कथन है कि पुरानी मूर्ति चोरी हो गयी थी. यह स्वर्ण की थी. मालूम नहीं ऐसा था या नहीं. लेकिन देवी के श्रृंगार हेतु स्वर्ण आभूषण तो पहनाये ही जाते हैं. बाद में नई मूर्ति स्थापित की गयी और यह प्रथा डाली गयी कि आभूषण और वस्त्रों समेत मूर्ति को प्रत्येक शाम को भीतरी मंदिर भवन में लाया जाएगा. मैंने पुजारी से पूछा था कि जब भीम से मूर्ति नहीं हिली तक नहीं थी तो चोर उसे उठा कर कैसे ले गए थे? वह हक्का-बक्का मेरी तरफ घूर कर देखने लगा. अब भीमसेन तो रहे नहीं, सो किस्से पूछा जाए. लेकिन लोक आस्था और विश्वास पर चोट करने का साहस किसी में है क्या? वैसे होगा भी क्या? तो क्यों नहीं लोक में इस विश्वास को जारी रहने दिया जाए? जिन्हें अपना तर्क लगाना है, लगायें. विज्ञान लगाना है, लगायें. लोगों की आस्था है और मान्यता पूरी होती रहती है. बीच-बीच में मैं जब भी विलियम क्रूक लिखित 'An Introduction to Popular Religion and Folklore of Northern India', 1894 पढ़ता हूँ सारी की साड़ी तर्कबुद्धि एक तरफ धरी रह जाती है. भारतीय राजनीति का भी कुछ ऐसा ही हिसाब किताब है जो पोपुलर रिलिजन ऑफ़ फोकलोर के खांचे सरीखी कम करती है.
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