मरिये तो मर जाइये ,छूट परे जंजार , ऐसा मरना क्यों मरे, दिन में सौ सौ बार
मरूँ मरूँ तू क्या करे ,मेरी मरे बलाय ,
मरना था सो मर गया ,अब को मरने जाय।
मरिये तो मर जाइये ,छूट परे जंजार ,
ऐसा मरना क्यों मरे, दिन में सौ सौ बार।
भावसार :मेरी तो आशा -तृष्णा मिट गई मोह मिट गया। मृत्यु का भय भी समाप्त हो गया। भोगने खाने कमाने की अब कोई कामना ही शेष नहीं रही। अब मेरा अहंकार भी मिट गया। मौत का स्वागत करते हैं।
कबीर कहते हैं मरूँ मरूँ क्या करता है मेरी तो आशक्ति मिट गई कामना मर गई। अब मैं मौत से क्यों डरूँ ?
सारी बला समाप्त ,जीते जी मुक्ति मिल गई मुझे तो। मुझे जो मिला है उससे मैं संतुष्ट हूँ। मेरी इसलिए कोई शिकायत भी शेष नहीं रही।
महनत करो फिर जो मिले उसमें संतोष करो। असंतोष ही सारे दुखों की जड़ है।
अहंकार ही मौत है तृष्णा ही मौत है अहंकार का विसर्जन अभय है। कामनाओं को असंतोष को छोड़ दें मृत्युंजय बन जाएँ। जीवन में सद्गुणों के विकास के लिए गुणात्मक विकास हो भौतक सामग्री को जुटाने वाला मात्रात्मक विकास विकास नहीं है अपविकास है। जिससे हमारा सामजिक और बाहरी परिमंडल पारितंत्र पर्यावरण भी छीज रहा है।
जिसने महा-मृत्युंजय मन्त्र लिखा वह भी इस दुनिया से चले गए तुम कैसे बचोगे इसलिए जो करना है वह तो करो। जीते जी मृत्यु के पार जाना है तो तृष्णा को मारना अहंकार को मारना कामनाओं को मारना। कोई गुस्सा कर रहा है तो आप मर जाएँ अहंकार को मारना है ऐसा करना। ऐसा मरना ही मरना है आप चुप रहें हँसते रह जाए। अपने आपको पूरी तरह से सबसे छोटा और विनम्र बना लेना ही मरना है। ऐसा मरना एक बार ही होता है बार बार नहीं। बार -बार के नर्क से मुक्ति है अहंकार को मारना।
मरूँ मरूँ तू क्या करे ,मेरी मरे बलाय ,
मरना था सो मर गया ,अब को मरने जाय।
मरिये तो मर जाइये ,छूट परे जंजार ,
ऐसा मरना क्यों मरे, दिन में सौ सौ बार।
भावसार :मेरी तो आशा -तृष्णा मिट गई मोह मिट गया। मृत्यु का भय भी समाप्त हो गया। भोगने खाने कमाने की अब कोई कामना ही शेष नहीं रही। अब मेरा अहंकार भी मिट गया। मौत का स्वागत करते हैं।
कबीर कहते हैं मरूँ मरूँ क्या करता है मेरी तो आशक्ति मिट गई कामना मर गई। अब मैं मौत से क्यों डरूँ ?
सारी बला समाप्त ,जीते जी मुक्ति मिल गई मुझे तो। मुझे जो मिला है उससे मैं संतुष्ट हूँ। मेरी इसलिए कोई शिकायत भी शेष नहीं रही।
महनत करो फिर जो मिले उसमें संतोष करो। असंतोष ही सारे दुखों की जड़ है।
अहंकार ही मौत है तृष्णा ही मौत है अहंकार का विसर्जन अभय है। कामनाओं को असंतोष को छोड़ दें मृत्युंजय बन जाएँ। जीवन में सद्गुणों के विकास के लिए गुणात्मक विकास हो भौतक सामग्री को जुटाने वाला मात्रात्मक विकास विकास नहीं है अपविकास है। जिससे हमारा सामजिक और बाहरी परिमंडल पारितंत्र पर्यावरण भी छीज रहा है।
जिसने महा-मृत्युंजय मन्त्र लिखा वह भी इस दुनिया से चले गए तुम कैसे बचोगे इसलिए जो करना है वह तो करो। जीते जी मृत्यु के पार जाना है तो तृष्णा को मारना अहंकार को मारना कामनाओं को मारना। कोई गुस्सा कर रहा है तो आप मर जाएँ अहंकार को मारना है ऐसा करना। ऐसा मरना ही मरना है आप चुप रहें हँसते रह जाए। अपने आपको पूरी तरह से सबसे छोटा और विनम्र बना लेना ही मरना है। ऐसा मरना एक बार ही होता है बार बार नहीं। बार -बार के नर्क से मुक्ति है अहंकार को मारना।
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