जो कुछ हो बस तुम्ही हो ,मेरी समग्र चेतना भी दृश्य अदृश्य जगत भी मंदिर की मूर्ती का मूर्त रूप तुम हो ,सम्पूर्ण मेरी चेतना का समुच्चय बस तुम हो तुम्ही से मैं तुम दो नहीं एक हैं अंदर बाहर। यही मूल स्वर है रचनाकार मुरारी लाल मुद्गिल साहब की इस संस्कृत निष्ठ उत्कृष्ठ रचना का पढ़िए अपनी नज़र से :
तुम ना होतीं हो तो ना रैन ,ना दिवस होता है।
सृष्टि अरुप,कर्म मौन ,और धर्म विवश होता है।।
सकल साधना की तुम प्राप्य लक्ष्य बना करती हो।
समग्र मनोरथ पूर्णाथ कल्प वृक्ष बना करती हो।
साँसो का सँगीत मधुर लय विलय की परिभाषा हो।
सँयोग वियोग व्यवहार जगत अविरल विरल आशा हो।।
सर्व उपस्थित पहचान तुम्हें पुरन आवाहन किया है।
मन मन्दिर की सजग कल्पना हो अभिमान किया है।।
सर्वत्र जगत की प्राण -प्रतिमा भगवान विभूति हो।
जड़ जँगम चेतन चित रुप स्मृतिश्रुत अनुभूति हो।।
स्वर्ण स्वरूप रूप अनूप अनुपम चित्रकार चित्र हो।
कलाकृति समभाव सी कोई मूर्ती प्रेरित विचित्र हो।।
मलयाचल की गन्ध सुगन्ध कुसुमित कलियोँ सँगम हो।
विपुल विलासिनि वेद विहित प्रति नाद विहँगम हो।।
सृष्टा सृष्टि की बूँद बूँद वृष्टी सुधामयी धारा हो ।
पाप विनाशनी तम हारिणी या प्रलय कूप किनारा हो।।
अदृष्टाक्षर हो मेरे प्रणय पुनीता क्रमवत परिदृश्यों का।
उत्कण्ठा अभिनव या यथार्थ विस्मित वर्षों दर वर्षों का ।
मै अपूर्ण जीवन सीमित तुम जगत मे उपलब्ध हो।प्राण सी स्थित अर्चनाओं में वंदनाओं के आधार शब्द हो।।
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