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Studied at Saugar University
From Noida, India
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तुमना ना होती हो तो ना रैन ना दिवस होता है।
सृष्टि अरुप,कर्म मौन और धर्म विवश होता है।।
सकल साधना की तुम प्राप्प लक्ष् बना करती हो।
समग्र मनोरथ पूर्णाथ कल्प वृक्ष बना करती हो।
साँसो का सँगीत मधुर लय विलय की परिभाषा हो।
सँयोग वियोग व्यवहार जगत अविरल विरल आशा हो।।
सर्व उपस्थित पहचान तुम्हे पुरन आहवाहन किया है।
मन मन्दिर की सजग कल्पना हो अभिमान किया है।।
सर्वत्र जगत की प्राण -प्रतिमा भगवान विभूति हो।
जड़ जँगम चेतन चित रुप स्मृतिस्रुत अनुभूति हो।।
स्वर्ण स्वरूप रूप अनूप अनुपम चित्रकार चित्र हो।
कलाकृति सम्भाव सी कोई मूर्ती प्रेरित विचित्र हो।।
मलयाचल की गन्ध सुगन्ध कुसमित कलियोँ सँगम हो।
विपुल विलासिनि वेद विहित प्रति नाद विहँगम हो।।
सष्टा सृष्टि की बुन्द बून्द वृष्टी सुधामयी धारा हौ।
पापविनाशनि तम हारिणी या प्रलय कूप किनारा हो।।
अदृष्टाक्षर हो मेरे प्रणय पुनीता क्रमवत परिदृशायोँ का।
उत्कण्ठा अभिनव या यथार्थ विस्मित वर्षो दर वर्षो का।
मै अपूर्ण जीवन सीमित तुम जगत मे ऊपलब्ध हो।
प्राण सी स्थित अरचनाओँ मे वन्दानाओ के आधार शब्द हो।।
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