शुक्रवार, 1 दिसंबर 2017

Shri Ram Katha by Shri Avdheshanand Giri Ji - Day 2 ,Part 4

भगवान् का प्रिय आहार है भक्त का अहंकार। भगवान् इसे रहने नहीं देते नारद समझ गए भगवान् ने मुझे अपनी माया के वशीभूत कर लिया था। नारद शांत हो गए और ध्यान में बैठ गए। 

कथा का सन्देश है :जब कोई व्यक्ति बहुत क्रोध करे तो समझ जाना यह असफल व्यक्ति है ,हार गया है। इससे बचने का सहज उपाय है भगवान् के गुणों को याद करो उस समय। 

पूर्व कथा प्रसंग :

मनुशतरूपा के सफल तप के बद आकाशवाणी का होना -आप दोनों ही कौशल्या और दशरथ होंगे ,मैं आपका पुत्र बनकर आऊंगा लेकिन अभी इंतज़ार करना होगा। 

उधर जय विजय के शाप के कारण भी रावण कुम्भकर्ण(कुम्भ -करण ) का आना और नारद के शाप को भी अंगीकार कर भगवान् का स्वयं भी राम बनकर आने को उत्सुक होना । राम के जन्म के कारण बने। 

आइये चलते हैं अयोध्या जहां समूची वसुंधरा के वैभव का एक मात्र उपभोक्ता राजा दसरथ -जब वृद्धावस्था नज़दीक आ गई -किसे सौंपे ये ऐश्वर्य वसुंधरा का। देवताओं को जब भय होता है मैं छलांग लगाकर स्वर्ग पहुंचता हूँ। वशिष्ठ जी मेरे गुरु हैं। मैं इच्छवाकु वंश का प्रतापी सम्राट -मुझे राजपुत्र नहीं चाहिए ?

मैं उन्मादियों को देख रहा हूँ। मैं देख रहा हूँ रावण को उसके बढ़ते साम्राज्य को ,एक बड़ी विपदा मैं देख रहा हूँ संत विखंडित हो रहे हैं संत सत्ता बिखर गई है आतताइयों के कारण वह एक मत नहीं हैं। एक स्वर नहीं हैं उनका। तो कोई ऐसी सत्ता प्रकट हो जो  इस इह  लोक और परलोक को जोड़ दे। 

आज पहली बार सुमंत नहीं हैं सचिव नहीं है कोई साथ ,सचिवालय नहीं है राजा नंगे पैर  ही चल पड़े हैं गुरु वशिष्ठ के भवन की ओर । सौध पर  खड़ी सुकुमारियाँ राजा को पहली बार   नंगे पाँव चलते देखती हैं पुष्प बरसाती हैं।

नवग्रह जिसके यहां बंदी हैं जो विमानों का अपहरण कर रहा हैं जहां रमणियाँ  ,सुंदरियाँ दिखीं वो उसकी कारा में हैं। उसके रावण के पुत्र ने इंद्र को भी जीत लिया है। 

मुझे एक पुत्र चाहिए। 

वशिष्ठ जी ने कहा -हम पुत्रयेष्ठि यज्ञ करेंगे जिसके  क्रियान्वयन में एक ही ऋषि दक्ष हैं -ऋषि श्रृंगी। मन्त्र मुझे भी पता हैं विधि का बोध मुझे है पर   क्रियान्वयन करने में यदि कोई  दक्ष हैं तो वह श्रृंगी ऋषि ही हैं। 

इस धरती पर एक वस्तु ऐसी है जिससे इह लोक की और परलोक की सकल वांछाओं की सिद्धि की जा सकती है। एक साधन ऐसा है जिससे कुछ भी पाया जा सकता है। पूछा दशरथ ने वह साधन कौन सा है। तो कहा वशिष्ठ जी ने वह गौ माता की सेवा है। 

गाय के दुग्ध को  कैसे विधि पूर्वक दुहा जाए ,कैसे उसकी खीर बनाकर देवताओं को अर्पित की जाए वही जानते हैं। दोनों लोकों की सिद्धि हो जाएगी उसके अर्पण से। 

श्रृंगी ऋषि ने २१ दिन तक यज्ञ किया। 

अगर गौ माता की सेवा विधि पूर्वक कर ली जाए तो सकल वांछाएं पूरी हो जाती हैं इस लोक की भी परलोक की भी। यही एक मात्र साधन है जो दोनों लोकों को जोड़ता है दोनों  की  सम्पदा और ऐश्वर्य को हासिल करवा देता है।  

अगर आपकी अर्चना भगवान् तक नहीं  पहुंच पा रही है मंत्रोच्चार से पैदा स्पंदन और आपकी प्रार्थनाएं देवताओं तक नहीं पहुँच पाती हैं -यकीन मानिये गाय के कान में वह कह दो -गाय के कान की स्ट्रक्चर ऐसी है दूर तक जायेगी वह  ध्वनि  और उसकी गूंज।उसका सम्प्रेषण देवताओं तक हो जाएगा। 

अगर आप बहुत अशांत हैं ,एंग्जायटी आपकी बहुत बढ़ी हुई है ,कोई स्ट्रेस है आपके भीतर ,डिप्रेशन है -गाय की पीठ पर हाथ फेरिये कुछ देर ,गाय की एक दो परिक्रमा कर लीजिये आपका मन शांत हो जाएगा। आपके मस्तक में दुखन है सिरोवेदन है गाय की पूंछ मस्तक से लगा लीजिये। और यकीन मानिये यदि गाय  नथुनों से निकलने वाली श्वास आपकी मुठ्ठी का स्पर्श कर गई ,गाय की जीभ आपकी हथेलियों से छू गई अपार अपूर्व ऊर्जा का संचार हो जाएगा आपके अंदर। 

गाय के मूत्र को उबालकर खोया (मावा )तैयार किया जाता है उबाल कर देख लीजिए यकीन नहीं है तो। और गाय के गोबर के ऊपर जो एक पारदर्शी सफ़ेद झिल्ली होती है हारवर्ड विश्वविद्यालय के  विज्ञानियों ने भी इस तथ्य को सिद्ध किया है वह बादलों का (पानी बरसाने वाले मेघों  ,परिजन्य ,परिजन्यों ) का आवाहन करती है। गोबर की गंध आपके शरीर में यदि रसायनों का  व्रतिक्रम  हो गया है असंतुलन हो गया है सूंघने से संतुलन पुन : कायम हो जाता है। बेशकीमती पदार्थ है गाय का गोबर।गौ रेचन गाय के कान का मेल, विश्व का सबसे कीमती पदार्थ है जिसके स्पर्श मात्र से सिरोवेदन समाप्त हो जाता है बस थोड़ा सा मस्तक से लगा लीजिये। 

परिजन्य वे बादल हैं जो  समानुपातिक  तौर पर बरसेंगें कहाँ कितना वर्षा जल चाहिए उतना ही बरसेंगे। सब को जल समुचित जल मुहैया करवाएंगे। 

कोई स्मृति ह्रास है आपकी जीवन की लय खोती जा रही है ,गौ माता की शरण में आइये। 

हमारी संस्कृति पंच -गकारों  पर भी आधारित है। 

गुरु ,गंगा ,गीता , गायत्री ,गाय। 

अर्पण,  तर्पण , समर्पण -इन तीन शब्दों से बखान हो जाता है भारतीय संस्कृति का। 

बिना इन पांच देवताओं (पञ्च गकारों )के कुछ नहीं होगा  आपके जीवन में । 

गुरु माने परम्परा ,बोध ,मानक,मूल्य , सिद्धांत।

किंचित गीता भगवद गीता ,

गंगाजल और कनिका पीता।  

श्रृंगी ऋषि ने यज्ञ किया  गौ माता के एक एक द्रव्य से। 

दूध ,दूध का आधा भाग दधि ,दधि का आधा भाग घृत ,और घृत का आधा भाग मूत्र और मूत्र का आधा भाग गौ -रज़  (गोबर का रस ).  

एक बात और बाहर कितनी भी प्रचंड गर्मी हो गोबर के अंदर उसकी सफ़ेद झिल्ली के पार ऊँगली डालकर देखिये -गोबर के अंदर का तापमान उतना ही मिलेगा जितना आपने शरीर का  सामान्य तापमान  होता है (३७ सेल्सियस या ९८.६  फारेनहाइट ),और गौ मूत्र का तापमान भी आपके शरीर के तापमान जितना ही मिलेगा। गाय के जो पेट में मूत्र है उसका भी तापमान उतना यही रहता है जैसा आपके शरीर का है।सतह की पारदर्शी झिल्ली भले गर्म हो।  

 पञ्च गव्य बनाकर  शृंगि  ऋषि ने  देव आराधना की -कहा वीर्य कैसे नहीं बनेगा ,गर्भ कैसे नहीं ठहरेगा। हम उस प्रकार की औषधि बनाएंगे ,उस प्रकार की औषधि बनाकर खीर बनाकर राजा के हाथ में दे दी यह कहकर -

खीर के दो हिस्से कर दो। आधा कौशल्या को दे दो। और शेष आधे के दो हिस्से करके एक एक हिस्सा उनमें से कैकई और सुमित्रा को दे दो।

अरुंधति कौशल्या के पास आती हैं।आज कौशल्या अत्यंत सकुचाई सी गुरु माता के चरणों पर पुष्प से अर्क चढ़ातीं हैं।कौशल्या झुकना चाहती हैं  गुरु माता उनका हाथ पकड़कर चूम लेती हैं ।पूछती हैं अपना अनुभव बताओ -कैसा लग रहा है गर्भ काल में। कौशल्या कहतीं हैं  कैकई  से पूछो वह मुखरित रहतीं हैं। 

कैकई बतलाती हैं मुझे महसूस हो रहा है मैं दासी बन जाऊँ ,सेविका बन जाऊं कौशल्या की। मौन रहूं। मैं परम् शान्ति और वैराग्य का अनुभव कर रही हूँ। मेरा पुत्र राम का अनुचर होगा। 

सुमित्रा के पास जातीं हैं गुरु माता -सुमित्रा कहतीं हैं मुझे दो प्रकार की अनुभूति हो रही है -मेरा एक अंश राम का अनुचर होगा ,कभी कभी लगता है हज़ार हज़ार सर्प मेरी काया में पल रहे हैं। एक और मेरा अंश कौशल्या के  पुत्र का अनुगामी होगा। कौशल्या के पास पुन : लौटती हैं गुरु माँ। कहतीं हैं मैं तो तुम्हारा अनुभव सुनने आईं थीं। कौशल्या धीरे से कहतीं हैं जब मैं रात्रि को आकाश-गंगा के तारों को निहारती हूँ मुझे लगता है इनका बनाने वाला मेरे अंदर मेरे गर्भ में है मैं जब चंदा को देखतीं हूँ प्रात : सूरज को देखतीं हूँ मुझे लगता  इसका रचयिता भी मेरे अंदर है। कभी लगता है मैं ही मैं  हूँ  सब जगह और  सब मुझमें ही हैं। गुरु माँ के कान में कहतीं हैं कौशल्या मुझे लगता है संसार का रचयिता मेरे अंदर पनप रहा है।  

भगवान् राम का जन्म हो गया है कथा का शेष भाग अगले अंक तीसरे दिन की कथा में इन सन्देश के साथ :

संत क्या हैं। संत पात्रता देते हैं योग्य बनाते हैं। 

उदारता क्या है ?अगर किसी ने अपराध किया है  तो उसे क्षमा कर दीजिये और उसके गुणों को निहार देखकर उसे सदगुण और भी अपनाने का अवसर दीजिए ,यही औदार्य उच्चता है।  

सन्दर्भ -सामिग्री :

(१ )https://www.youtube.com/watch?v=_1UZvf4IGu8

(२ )

Shri Ram Katha by Shri Avdheshanand Giri Ji - 27th Dec 2015 || Day 2

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