शनिवार, 16 दिसंबर 2017

Yoga Vasistha (ch-1) 3 of 7 @ Varanasi 2016 (Hindi)03860 NR YTC(HINDI )

योग वशिष्ठ से 

योग वशिष्ठ वह ग्रंथ है जिसके समस्त सूत्र गुरु वशिष्ठ ने राम को तब समझा दिए थे जब वह अपनी बारह साला गुरुकुल दीक्षा को संपन्न कर  तेरह वर्ष की उम्र में देश देशान्तरों के भ्रमण   के लिए निकल गए थे। लौटने पर वह एक दम  से व्याकुल ,उदासीन मना हो गए थे। न किसी से कुछ बोलते थे न ठीक से खाते पीते थे। 

वैराग्य और अवसाद डिस्पेशन और डिप्रेशन  में अंतर् होता है। अवसाद ग्रस्त व्यक्ति अपने दुखों का कारण अन्यों को बतलाता है उन्हें कुसूरवार ठहराता है अपनी वर्तमान स्थिति के लिए ,उसके पास सिर्फ आरोप होते हैं। अवसाद ग्रस्त व्यक्ति संसारी होता है। वैरागी विराग की स्थिति में होता है समत्व में रहता है। न उसे कोई दुःख सालता है न सुख में वह आह्लादित होता है। 

अपने जीवन में प्रवेश लेने से पूर्व राम इस वैराग्य को प्राप्त हो चुके थे वशिष्ठ से योगवशिष्ठ के मर्म को जानकर। सारे बड़े काम वनगमन ,ताड़का वध ,अन्य खरदूषण आदि राक्षसों का वध  ,ऋषियों के आश्रम को त्रास से मुक्त करना और अंत में रावण वध  राम ने इसी वैराग्य की स्थिति में किये थे।योगवशिष्ठ की इसमें बड़ी भूमिका रही है। 

अकसर हम अपने दुःख के लिए किसी और को टारगेट करते हैं। जबकि न हम जन्म से पति होते हैं न पत्नी ,न माँ -बाप। ये सब लीलाएं हैं -रामलीला और  कृष्णलीला की तरह। बस हमें अपना पार्ट अदा करना है। यहां एक ही व्यक्ति अलग -अलग समय पर अलग भूमिका में होता है जबकि व्यक्ति वही है - पति भी वही है ,आफिस का बॉस भी वही है ,पिता भी वही है और किसी का पुत्र भी वही है। बस ये सब रोल मात्र हैं। लेकिन जब वह इस संसार में आया था इनमें से कुछ भी नहीं था। 

सबसे ज़रूरी बात है हम अपने से ,खुद से बोलना बंद करें। मौन सिर्फ वाणी का नहीं होता है मन का भी होता है। एक संवाद एक कमेंट्री हमारे अंदर हरदम चलती रहती है -और जब कोई पूछता है क्या सोच विचार चल रहा है हम कहते हैं कुछ नहीं। बस ऐसे ही बैठा था। 

निरंतर एक मिनिट का अभ्यास करें एक बार में -खुद से नहीं बोलना है -आई शट अप माइ माउथ। दिन में चार पांच बार करें यह अभ्यास। करके देखिये फायदा होगा। 

और दुःख हमारे जीवन में हमारे ही पूर्व जन्म का कर्मफल है -प्रारब्ध रूप में इसे काटना ही है।कोई अन्य इसका कारण नहीं है।  

अध्यात्म का मतलब है मन को साधना। मन पर काम करना .मन का संतुलन बनाये रखना। राम यही करते हैं असल जीवन में। 

मन के लिए काम करना मन से काम करना मनमानी करना ही है। तब आप संसारी हैं। चित्त को साधना मन के  संतुलन का परिणाम है। 

यहां निषेध नहीं है ,शुभ संकल्प भी आएंगे मन में अशुभ भी। शुभ संकल्प आने से बेशक पुण्य मिलेगा। लेकिन अशुभ संकल्प आने से पाप नहीं लगेगा।ऐसा तुलसीदास भी कहते हैं।  

अशुभ संकल्पों को शब्दों के  कपड़े मत पहनाइए बस आपको इतना करना है मन में इन्हें बसाये खुद से बात नहीं करना है। 

दिन में कभी पिता के रूप में कुछ देर बैठ जाइये ,कभी पुत्र रूप और कभी पत्नी रूप ,माँ रूप ,बेटी बनके -देखिये बस देखिये कैसे विचार आ रहे हैं और कुछ देर कुछ भी न बन के बस बैठ जाइये ,करके देखिये कुछ भी न होने में बनने में कितना आनंद है जो के आप हैं आपका निज स्वरूप यही आनंद हैं। आप दुखी नहीं है।आप बस हैं। और ये आपका होना ही शाश्वत है यह इज़्नेस कभी नष्ट नहीं होती।  

सन्दर्भ -सामिग्री :


(१ )https://www.youtube.com/watch?v=If68FVe26_U


1:12:00

Yoga Vasistha (ch-1) 3 of 7 @ Varanasi 2016 (Hindi)03860 NR YTC


Anubhavananda Saraswati
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