मैथुनी सृष्टि में सर्वप्रथम देवहुति आईं हैं। इन्हें विश्व की पहली कन्या कहा जा सकता है। कथा है भागवत पुराण में ब्रह्मा ने अपने शरीर को ही दो भागों में विभक्त कर दिया था सृष्टि को नानात्व देने के लिए विस्तार देने के लिए। एक भाग से मनु और दूसरे से शतरूपा आ गईं। नारायण से पहले नारायणी आईं हैं। शंकर से पहले गौरी (गौरीशंकर ),श्याम से पहले राधा(राधेश्याम ) ,राम से पहले सीता (सीताराम ),नारायण से पहले लक्ष्मी(लक्ष्मी नारायण ) आईं हैं।
वेद ईश्वर से पूछता है -तू क्या है ?त्वं स्त्री। शाक्त मत के अनुसार स्त्री सर्वश्रेष्ठ एक अलग जाति (स्पेसीज़ )है। देवस्तुति में भी पहले गुणगायन में स्त्री का गायन है -त्वमेव माता च ,पिता त्वमेव …… ।
परदारा मातृभव :
जिस घर समाज में अपनी स्त्री को छोड़कर शेष को माँ भाव से देखा जाता है वहां लक्ष्मी का आवास स्थाई हो जाता है। लक्ष्मी से एक बार देवताओं ने पूछा -आप कहाँ रहतीं हैं। "मेरी चेतना नारायण के पास रहती है इसके अलावा मैं वहां प्राय :रहती हूँ जहां बालक ,स्त्री ,वृद्ध ,रोगी और अतिथि प्रसन्न रहते हैं। "-ज़वाब मिला।
पराम्बका ,पार्वती ,लक्ष्मी ,ब्रह्माणी ,रमा आदि ये सब स्त्री तत्व ही हैं।
घर में कन्या आ जाए तो वहां शोक पैदा न हो ,लोगों के चेहरे न लटक जाएं ,लक्ष्मी रूठ जाएगी उस घर से। स्त्री को स्वयं हिस्से हिस्से में बँटना भी आता है और सबके बराबर बराबर हिस्से बांटना भी आता है सबको यथोचित हिस्से देना भी आता है ,ये काम पुरुषों को नहीं आता है। इसलिए महालक्ष्मी घर में पैदा हो तो तवा बजाकर इत्तला दें आस पड़ोस को अपनी प्रसन्नता का। लड़के में कोई सुर्खाब के पर नहीं लगे होतें हैं।
भागवत पुराण के अनुसार मनु और शत रूपा से प्राप्त संतानों में पहली कन्या देवहुति है दूसरी प्रसूति और तीसरी आकूति। आनंद प्रसूत है ,प्रसूति। आकूति ने यज्ञ और दक्षिणा को जन्म दिया है। यज्ञ का एक अर्थ विष्णु है। यज्ञ करने से देवता आकर्षित होते हैं। सरल भाषा में कहें तो हम उन्हें बारहा यज्ञ करके अपना कर्ज़दार बना सकते हैं। प्रसूति ने सती को जन्म दिया है जिनका विवाह शिव से हुआ है। देवहुति का विवाह कर्दम ऋषि से हुआ है। विवाह से पूर्व देवहुति की परीक्षा ली कर्दम ऋषि ने -उन्हें एक ऐसा विमान दिया जो तीनों लोकों में जा सकता था। अपना आकार छोटा बड़ा कर सकता था। राडार को चकमा देकर अदृश्य बना रह सकता था। पानी पे रनवे की तरह दौड़कर आकाश में उड़ सकता था। बर्फ पर उतर सकता था। यानी वैमानिक अभियांत्रिकी का इल्म था ऋषि को। स्पेस ट्रेवल आम बात थी।
देवहूति ने कहा महाराज मुझे उपकरणों में न उलझाए मुझे वह ज्ञान दीजिए जो स्थाई आनंद दे २४ /७। विवाह के लिए भी उन्होंने बड़ी कठोर शर्त रखी। कहा मैं पहला पुत्र होते ही चला जाऊंगा। संन्यास ले लूंगा। देवहुति जानती थी ये ऋषि ऐसे संकल्प के स्वामी हैं कि इनके शुभ संकल्प से मेरी कोख से साक्षात ब्रह्म ही पैदा होंगें (कपिल मुनि के रूप में ).
विवाह हुआ। ऋषि ने देवहुति को देखा। सोचने लगे जब बिंदु (ईश्वर की रचना जीव )इतना सुन्दर है तो सिंधु (स्वयं ईश्वर )कितना सुन्दर होगा। बस कर्दम ऋषि की समाधि लग गई। बारह वर्षों तक तप करते रहे। जब समाधि खुली ऋषि ने देवहुति से पूछा -आप कौन हैं ,ऋषिवर मैं आपकी पत्नी देवहुति। बारह बरसों तक देवहुति ने साधना की मुझे पहली संतान पराम्बा जगदम्बा रूपा कन्या ही आये। पुत्र न आये। नौ देवियों को साधा देवहुति ने। नौ कन्याओं का जन्म हुआ उसके बाद आये कपिल मुनि। ऋषि उनका दर्शन करते ही मुक्त हो गए -ये कहकर चले गए। तुम्हें दीक्षा की ज़रूरत है। मैं तो चला। अपने मातृत्व को भूलकर देवहुति ने अपने पुत्र कपिल मुनि से दीक्षा ली। सांख्य का ज्ञान प्राप्त किया।
जननी जने तो संत जने या दाता या सूर ,
नहीं तो जननी बाँझ रहे ,काहे गवांये नूर।
देवहुति की पहली संतान अनसुइया हुईं। इनका विवाह अत्रि ऋषि से हुआ। ये ही सती अनसुइया के रूप में जानी जाती हैं। इन्होनें ही ब्रह्मा -विष्णु -महेश को अपने तप बल से दुधमुंहा बालक बना दिया था। एक बार इन्होनें अपने पति ऋषि अत्रि के माथे पे पसीना देखा। पूछा ऋषिवर ये क्या है। बोले ऋषि अब नित्य कर्म से निवृत्त होने के लिए गंगा तक नहीं चला जाता। अनसुइया ने मन में संकल्प करते हुए कि यदि मेरा जीवन वाकई एक सती का जीवन है ज़रा सा भी पुण्य मेरे खाते में है तो हे गंगा मैया तुम मेरे द्वारे ही चली आओ -ये कहते हुए इन्होने पृथ्वी पर ज़ोर से मुक्का मारा। मंदाकिनी प्रकट हो गईं जो आज भी चित्रकूट में बहतीं हैं।
(ज़ारी )
घर घर में होती है जिनकी पूजा ,चेतन में वो देवियाँ आ गईं
शिव शक्तियां आ गईं ,धरती पर शिव शक्तियां आ गईं।
वेद ईश्वर से पूछता है -तू क्या है ?त्वं स्त्री। शाक्त मत के अनुसार स्त्री सर्वश्रेष्ठ एक अलग जाति (स्पेसीज़ )है। देवस्तुति में भी पहले गुणगायन में स्त्री का गायन है -त्वमेव माता च ,पिता त्वमेव …… ।
परदारा मातृभव :
जिस घर समाज में अपनी स्त्री को छोड़कर शेष को माँ भाव से देखा जाता है वहां लक्ष्मी का आवास स्थाई हो जाता है। लक्ष्मी से एक बार देवताओं ने पूछा -आप कहाँ रहतीं हैं। "मेरी चेतना नारायण के पास रहती है इसके अलावा मैं वहां प्राय :रहती हूँ जहां बालक ,स्त्री ,वृद्ध ,रोगी और अतिथि प्रसन्न रहते हैं। "-ज़वाब मिला।
पराम्बका ,पार्वती ,लक्ष्मी ,ब्रह्माणी ,रमा आदि ये सब स्त्री तत्व ही हैं।
घर में कन्या आ जाए तो वहां शोक पैदा न हो ,लोगों के चेहरे न लटक जाएं ,लक्ष्मी रूठ जाएगी उस घर से। स्त्री को स्वयं हिस्से हिस्से में बँटना भी आता है और सबके बराबर बराबर हिस्से बांटना भी आता है सबको यथोचित हिस्से देना भी आता है ,ये काम पुरुषों को नहीं आता है। इसलिए महालक्ष्मी घर में पैदा हो तो तवा बजाकर इत्तला दें आस पड़ोस को अपनी प्रसन्नता का। लड़के में कोई सुर्खाब के पर नहीं लगे होतें हैं।
भागवत पुराण के अनुसार मनु और शत रूपा से प्राप्त संतानों में पहली कन्या देवहुति है दूसरी प्रसूति और तीसरी आकूति। आनंद प्रसूत है ,प्रसूति। आकूति ने यज्ञ और दक्षिणा को जन्म दिया है। यज्ञ का एक अर्थ विष्णु है। यज्ञ करने से देवता आकर्षित होते हैं। सरल भाषा में कहें तो हम उन्हें बारहा यज्ञ करके अपना कर्ज़दार बना सकते हैं। प्रसूति ने सती को जन्म दिया है जिनका विवाह शिव से हुआ है। देवहुति का विवाह कर्दम ऋषि से हुआ है। विवाह से पूर्व देवहुति की परीक्षा ली कर्दम ऋषि ने -उन्हें एक ऐसा विमान दिया जो तीनों लोकों में जा सकता था। अपना आकार छोटा बड़ा कर सकता था। राडार को चकमा देकर अदृश्य बना रह सकता था। पानी पे रनवे की तरह दौड़कर आकाश में उड़ सकता था। बर्फ पर उतर सकता था। यानी वैमानिक अभियांत्रिकी का इल्म था ऋषि को। स्पेस ट्रेवल आम बात थी।
देवहूति ने कहा महाराज मुझे उपकरणों में न उलझाए मुझे वह ज्ञान दीजिए जो स्थाई आनंद दे २४ /७। विवाह के लिए भी उन्होंने बड़ी कठोर शर्त रखी। कहा मैं पहला पुत्र होते ही चला जाऊंगा। संन्यास ले लूंगा। देवहुति जानती थी ये ऋषि ऐसे संकल्प के स्वामी हैं कि इनके शुभ संकल्प से मेरी कोख से साक्षात ब्रह्म ही पैदा होंगें (कपिल मुनि के रूप में ).
विवाह हुआ। ऋषि ने देवहुति को देखा। सोचने लगे जब बिंदु (ईश्वर की रचना जीव )इतना सुन्दर है तो सिंधु (स्वयं ईश्वर )कितना सुन्दर होगा। बस कर्दम ऋषि की समाधि लग गई। बारह वर्षों तक तप करते रहे। जब समाधि खुली ऋषि ने देवहुति से पूछा -आप कौन हैं ,ऋषिवर मैं आपकी पत्नी देवहुति। बारह बरसों तक देवहुति ने साधना की मुझे पहली संतान पराम्बा जगदम्बा रूपा कन्या ही आये। पुत्र न आये। नौ देवियों को साधा देवहुति ने। नौ कन्याओं का जन्म हुआ उसके बाद आये कपिल मुनि। ऋषि उनका दर्शन करते ही मुक्त हो गए -ये कहकर चले गए। तुम्हें दीक्षा की ज़रूरत है। मैं तो चला। अपने मातृत्व को भूलकर देवहुति ने अपने पुत्र कपिल मुनि से दीक्षा ली। सांख्य का ज्ञान प्राप्त किया।
जननी जने तो संत जने या दाता या सूर ,
नहीं तो जननी बाँझ रहे ,काहे गवांये नूर।
देवहुति की पहली संतान अनसुइया हुईं। इनका विवाह अत्रि ऋषि से हुआ। ये ही सती अनसुइया के रूप में जानी जाती हैं। इन्होनें ही ब्रह्मा -विष्णु -महेश को अपने तप बल से दुधमुंहा बालक बना दिया था। एक बार इन्होनें अपने पति ऋषि अत्रि के माथे पे पसीना देखा। पूछा ऋषिवर ये क्या है। बोले ऋषि अब नित्य कर्म से निवृत्त होने के लिए गंगा तक नहीं चला जाता। अनसुइया ने मन में संकल्प करते हुए कि यदि मेरा जीवन वाकई एक सती का जीवन है ज़रा सा भी पुण्य मेरे खाते में है तो हे गंगा मैया तुम मेरे द्वारे ही चली आओ -ये कहते हुए इन्होने पृथ्वी पर ज़ोर से मुक्का मारा। मंदाकिनी प्रकट हो गईं जो आज भी चित्रकूट में बहतीं हैं।
(ज़ारी )
घर घर में होती है जिनकी पूजा ,चेतन में वो देवियाँ आ गईं
शिव शक्तियां आ गईं ,धरती पर शिव शक्तियां आ गईं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें